Say- No Violence Against Women (part-2) -Pratibha Chauhan

    

  जब भी हम महिला सुरक्षा, महिला सम्मान और गरिमा की बात करते हैं तो भारत में ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व में महिलाओं की स्थति कमोबेश एक जैसी ही नजर आती है। इक्कीसवीं शताब्दी के दौर में भी महिलाओं को एक कमजोर और हाशिए के वर्ग के रूप में जाना जाता है। ऐसा वर्ग जो कि सम्पूर्ण विश्व की आधी आबादी का प्रतिनिधत्व करता है। महिलाओं के विरुद्ध हिंसा,अपराध और प्रताड़ना को सार्वभौमिक तथ्य के रूप में  स्थान प्राप्त है, ऐसी अवस्था एक अस्वस्थ समाज को परिलक्षित करती है। कितनी अजीब बात है कि वैश्विक विकास और सतत विकास जैसी संकल्पनाओं को साकार करने के दौर में एक वर्ग विशेष की सुरक्षा की बात किया जाना जरूरी हो गया है क्योंकि इसकी बात किए बिना विकास की बात अधूरी ही रह जाएगी। एक सभ्य समाज का निर्माण करना है तो कमजोर को मजबूत बनना होगा। शिक्षा एक मूलभूत व मजबूत नींव है जिस पर आर्थिक व सामाजिक विकास  टिका हुआ है। स्वयं महिलाओं की भी इसकी जिम्मेदारी लेकर शैक्षिणिक,सामाजिक, आर्थिक, मानसिक, विधिक व मनोवैज्ञानिक रूप से मजबूत बनना होगा। इसके लिए जागरूकता सबसे बड़े टूल के रूप में प्रयोग हो सकता है।

           एक स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि उस समाज में रहने वाले सभी लोग अपने अधिकारों और कर्तव्यों के संबंध में जागरूक हों । जागरूक होना स्वतंत्र होने की सबसे बड़ी पहचान है। जागरुकता ही अन्य स्वतंत्राओं को रक्षित व सुरक्षित करती है।आज प्राथमिकताएं तय करने का समय है।  आवश्यकता इस बात की है कि हम इस बात को महसूस करें कि विधिक जागरूकता का हमारे जीवन में क्या महत्व है और इसकी कितनी महती भूमिका हो सकती है। यहाँ पर एक बात गौर किए जाने योग्य है कि विधिक जागरूकता और विधिक चेतना के लिए ऐसा क्या किया जाए कि प्रत्येक व्यक्ति अपने संवैधानिक और विधिक अधिकारों की जानकारी रखे और आवश्यकता पड़ने पर उनके उल्लंघन के विरुद्ध लड़ाई कर सके। ऐसी कौन सी चीजों को अपनाया जाए अथवा ऐसा कौन सा फोरम  इस्तेमाल किया जाए कि इनकी सुरक्षा हो सके । यह बात बिल्कुल ही सत्य है कि ज्ञान मनुष्य को किसी भी कार्य को अच्छे ढंग से करने के लिए योग्यता प्रदान करता है। इसमें महिलाओं को जागरूक बनना होगा। विशेषकर उन महिलाएं को जो कभी घर से बाहर नहीं निकली या वे महिलाएं जो घर से बाहर तो निकली हैं परंतु वह समाज का सामना करने से कतराती हैं। समाज का वह हिस्सा जिसमें कुछ लोग अराजकतावादी हैं या हिंसा करने वाले हैं , तथा समय समय पर महिलाओं के विरुद्ध किसी भी प्रकार की हिंसा करने में कोई कोताही नहीं बरतते वैसे लोगों का सामना करने की हिम्मत, समझदारी व उपाय की जानकारी होना बहुत ही आवश्यक है। 

           यदि हम इतिहास उठाकर देखें तो हम यह समझ सकेंगे कि प्राचीन काल से लेकर अब तक महिलाओं की स्थिति में उत्तरोत्तर परिवर्तन होता चला आया है जो समस्याएं पूर्व में थीं वे अब नहीं है।  जो स्वतंत्रता कुछ समय पहले थी उससे कहीं अधिक स्वतंत्रता का उपयोग अब  महिलाएं कर पा रही हैं।  वे महिलाएं जो घर में चारदीवारी के भीतर रहा करती थी ,जिन्हें कभी विद्यालय जाने का भी मौका नहीं मिला उन महिलाओं ने भी अपनी बेटियों को पढ़ाने का जिम्मा उठाया है, केवल उतना ही बल्कि उन्हें उनके पैरों पर खड़ा करने के लिए निरंतर प्रेरणास्रोत बनी रहीं। बदलाव एक नैसर्गिक प्रक्रिया है मनुष्य के स्वभाव व सोच, में  बदलाव होना भी स्वभाविक है। परंतु समाज की सोच में उतना बदलाव नहीं आया जितना कि आना  चाहिए था। 1947 से लेकर आज तक लगभग 75 वर्ष बीतने के बाद भी आज भी महिलाएं लगातार संघर्ष कर रही हैं। यह संघर्ष केवल समाज के लोगों के या पितृसत्ता के साथ नहीं बल्कि संपूर्ण मानव सभ्यता के साथ है। 


प्रतिभा चौहान

बिहार न्यायिक सेवा


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