नारी सुरक्षा एवं नैतिक मूल्य- प्रतिभा चौहान

 



           नारी सुरक्षा एवं  नैतिक मूल्य  -प्रतिभा चौहान


          जब स्त्री की बात होती है तो आधी मानव जाति की बात होती है। स्त्री सहयोग के बिना यदि कोई विकास कार्य किया गया है तो वह आधी मानव जाति के प्रतिनिधित्व के बिना किया गया विकास कार्य है, जो अपनी पूर्ण स्थिति को प्राप्त नहीं है। किसी भी देश की स्त्री जाति की दशा उस देश की स्थिति दर्शाती है। ख्यात साहित्यकार महादेवी वर्मा ने लिखा है कि पुरुष अकेला हो सकता है, परन्तु स्त्री अनेक सम्बन्धों का केन्द्र होने के कारण एक संस्था के समान है, अपने सृजन और प्राकृतिक विशेषताओं के कारण नारी जीवन के कोमल, रहस्यमय और विकासशील पक्ष का पर्याय है। हमें स्वाधीनता मिले कई वर्ष हो चुके हैं, किन्तु आज भी हम, जब विकास की यात्रा पर उत्तरोत्तर बढ़ते हुए यह देखते हैं कि जो यात्रा में दमित, उपेक्षित और पिछड़ापन का शिकार था, वह कमोबेश आज भी उसी स्थिति को झेल रहा है। इक्कीसवीं सदी को नारी-सदी के रुप में देखा जा रहा है। स्त्रियाँ घर की चहारदीवारी लाँघ कर समाज में अपना योगदान दे रही हैं। एक ओर जहाँ विकास, नगरीकरण, औद्योगीकरण एवं सांस्कृतिक खुलापन बढ़ा है वहीं दूसरी ओर नारी अस्तित्व पर आक्रमण बढ़े हैं। यह भ्रूण हत्या, बलात्कार, दहेज हत्या, हिंसा,अपमान, तिरस्कार से लेकर अन्य वारदातों के रूप में समय-समय पर होते रहते हैं। नये कानून एवं न्यायिक निर्देशों के बावजूद, सामाजिक अपराधी उनको तोड़ने के हथकण्डे अपना रहे हैं, अपराधों की बढ़ती संख्या इस बात का सबूत है कि स्थितियाँ बहुत सुधरी हुई नहीं हैं । ऐसे में समाज का नैतिक दायित्व कुछ ज्यादा बढ़ जाता है। लेकिन समाज में भी इस तरह के प्रयास होते नहीं होते दिखाई देते।ऐसा प्रतीत होता है जैसे सब कुछ सरकारों पर ही छोड़ दिया गया है।लोग हर एक घटना का जिम्मेदार केवल और केवल सरकार को बनाना चाहता है या फिर न्यायपालिका पर चीजें छोड़ दी जाती हैं। सरकारें नीतियां बनाती हैं पर अमल तो समाज के लोगों को ही करना होता है। 

           समाज में गिरते मानवीय मूल्य ने समाज में नारी के प्रति उपभोक्तावादी, बाजारवादी एवं शोषणवादी नजरिया बढ़ाया है। हो सकता है इसे बाजारवादी विचारक खुली संस्कृति का हिस्सा कहें, परन्तु समाज का आधार 'गाँव' जहाँ देश बसता है, न ही इस खुलेपन को स्वीकार करते हैं, न ही नियमों को मानते हैं।जो लोग दूसरों के मामलों में खुलापन कह सकते हैं, वहीं अपने मामले में एकदम संकीर्ण हो जाते हैं।अतः पिसती हैं स्त्रियाँ। उपभोक्तावादी व बाजारवादी सोच ने अपराधों को बढ़ावा दिया है। छेड़खानी, अपहरण, बलात्कार, हिंसा, नशाखोरी, साइबर क्राइम  इत्यादि दिनों दिन बढ़ते जा रहे हैं । सभी अपराधों में स्त्री ही प्रभावित पक्ष है। आज नैतिक मूल्य धरातल के गर्त में खो गये हैं और औद्योगीकरण, वैश्वीकरण ने हमारी सभ्यता, संस्कृति, नैतिकता, परम्पराओं को निगल लिया है। गिरते मानवीय मूल्यों ने जहाँ एक ओर पारिवारिक सम्बन्धों की नींव हिला दी है, वहीं उपभोक्तावाद एवं बाजारवाद को बढ़ावा दिया है। एकल परिवार की संस्कृति को जन्म मिलने से जहाँ वृद्ध महिलाएं उपेक्षित हुई हैं, वहीं एकाकी परिवारों की युवा महिलाओं में भी असुरक्षा का भाव उत्पन्न हुआ है परिणामस्वरूप अपराध और हिंसा बढ़ी है। आवश्यकता इस बात की है कि सरकार व समाज खुले मन व समझ-बूझ के साथ ऐसी नीतियाँ बनाएं, जिनमें स्वयं नारी की अधिक से अधिक भागीदारी रचनात्मक रूप से हो। 

           आज समाज का अति संघर्षशील रूप देखने को मिल रहा है। मुख्य विचारणीय बिन्दु यह है कि यह संघर्ष किसके द्वारा होना चाहिए और किस तरह का होना चाहिए। एक तो उन स्त्रियों का संघर्ष जो घर से निकली ही नहीं, जिनके मन में समाज, समुदाय और देश के प्रति उनके अर्थपूर्ण योगदान के परिणामों को जानने- समझने की सामर्थ्य या इच्छा का अभाव है, और जिनकी दुनिया पति और परिवार के सदस्यों के दिशा-निर्देशों का पालन मात्र के ही इर्द-गिर्द है। वे लड़ रहीं हैं-मूलभूत सुविधाओं के लिये या पर्याप्त मान सम्मान के लिये; जिनकी वे एक सामान्य जीवन जीने के लिये एक मानव होने के नाते अधिकारी हैं। दूसरे, वे महिलायें संघर्ष कर रहीं हैं जो पढ़ी-लिखीं हैं और समाज में सक्रिय योगदान हेतु तत्परता के साथ-साथ पुरुष बनने की होड़ में हैं। एक तीसरे प्रकार का संघर्ष है जो उन महिलाओं द्वारा किया जा रहा है जो न केवल स्त्री जाति की ही हिमायती हैं बल्कि हर क्षेत्र में परिस्थितियों और अवरोधों को धता बताते हुए मिसाल कायम कर रहीं हैं। इसका प्रमुख उदाहरण हैं पूर्वोत्तर क्षेत्र की महिलाएं जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पिछड़ेपन के बावजूद रोजगार परक कार्यों से जुड़कर आर्थिक रूप से सक्षम बन रही हैं। आज तीसरे तरह की लड़ाई की ही आवश्यकता है, यह लड़ाई भी तीन स्तर पर होनी चाहिए। पहली, उनलोगों के खिलाफ जो महिलाओं को अपनी सम्पत्ति समझते हैं, जैसे उन्होने उन्हें खरीद लिया है; वे जैसे चाहें इस्तेमाल कर सकते हैं, उनपर कोई लगाम नहीं है। दूसरी, समाज के खिलाफ जहाँ महिलाएं आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक रूप से तो समृद्ध हैं किन्तु अपने मान सम्मान एवं आजादी के लिए लड़ रहीं हैं। तीसरी वहाँ, जहाँ नियम-कायदा-कानूनों ने उन्हें उपभोक्ता कम उत्पाद ज्यादा बना दिया है-महिलाओं के नाम पर आरक्षण, इन्दिरा आवास योजना, महिलाओं के नाम पर सम्पत्ति में छूट विधवा पेन्शन जैसे प्रावधान आदि, वे स्वयं वस्तु बना दी गई हैं-पुरुषों के उत्पाद महिलाओं के माध्यम से दिखाना, उपभोक्ता वर्ग को लुभाने के लिये विज्ञापनों में महिलाओं का इस्तेमाल करना। अगर देखा जाये तो स्त्री विकास है कहाँ? क्या ग्राम पंचायतों में पचास प्रतिशत महिलाओं के लिये आरक्षण, मनरेगा में सौ दिन के रोज़गार या विधानसभा में आरक्षण ने उनको वास्तव में आर्थिक स्वतंत्रता प्रदान की है? शायद नहीं। यदि ऐसा होता तो प्रधानपति, पंचायत पति जैसी संकल्पनायें नहीं उभरतीं। 

               अधिकारों को न जानना उतना बुरा नहीं है जितना कि अधिकारों को जानते हुए भी बुत बने रहना। यहाँ पर जिन महिलाओं की बात की जा रही है वे मध्यम वर्ग या निम्न मध्यम वर्ग से आती हैं। एक खबर के मुताबिक एक प्राइमरी शिक्षिका दस वर्ष से शिक्षण कार्य करते हुए भी न अपना बैंक एकाउन्ट संचालित कर सकती है, न ही अपना कोई अर्थ सम्बन्धी निर्णय ले सकती है। यहाँ तक कि एक लाख रुपये जैसे अन्तरण को उसके शिक्षक पति द्वारा ही उसकी बिना सहमति एवं अनुमति के, उसके जाली हस्ताक्षर बनाकर, अन्तरित कर दिया जाता है। यह कैसी आर्थिक स्वतंत्रता है? यह आजादी नहीं बल्कि सम्पूर्ण नारी समाज का अपमान है। जब हम स्त्री के साथ स्त्री होने के नाते भेदभाव के बात करते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक स्तर पर कहां-कहां पर भेदभाव है। यह भी सच है कि स्त्री चाहे कामकाजी हो अथवा घरेलू दोनों ही परिस्थितियों में उसको ही घर की देखभाल करना व बच्चों का पालन पोषण उसकी प्राथमिकताएं है। हालांकि आज के समय में स्त्री का यह संघर्ष ज्यादा देखने को मिलता है क्योंकि दोहरी भूमिका उन्हें ज्यादा भूमिकाएं देती है।फिर भी कुछ समझदार और पढ़े लिखे लोग इस बात को समझते हुए स्त्री का पूर्ण सहयोग करते हैं और वैसी ही स्त्रियां हर क्षेत्र में आगे निकलती हुई दिखाई देती हैं। अभी भी बहुत बड़ा हिस्सा है स्त्रियों का पिछड़ा हुआ है जो सिर्फ चारदीवारी के भीतर ही अपनी संपूर्ण गुणवत्ताओं, उपयोगिता और भीतर के कलाकार को मार रही हैं क्योंकि न ही उन्हें मौके मिलते हैं और न ही वे अवसर प्राप्त करना चाहती हैं। एक साधारण और रोजमर्रा का जीवन जीते हुए वे अपना संपूर्ण अस्तित्व परिवार को समर्पित कर देती हैं। मुख्य मुद्दा मानसिकता का है। 

              आज की स्त्री बदलती हुई मानसिकता को ही स्वीकृत करना चाहती है और जो व्यक्ति मानसिकता बदलना नहीं चाहते उन से विरोध दर्ज कराती है, और यह विरोध भी कहीं न कहीं एक स्त्री संघर्ष के रूप में सामने आ रहा है। रूढ़ियों को तोड़ने की आवश्यकता है। रूढ़ियाँ स्त्रियों की नहीं बल्कि उन शैक्षणिक रूप से सशक्त, लोकतान्त्रिक रूप से समृद्ध महिलाओं के अधिकारों पर कब्जा जमाये बैठे ठेकेदारों की तोड़नी होंगी, जो महिलाओं को उनके हिस्से का अधिकार, स्वतंत्रता और सम्मान नहीं देना चाहते। ऐसे समाज के सामन्ती सोच वाले लोगों का नजरिया बदलने की आवश्यकता है। नैतिकता-शालीनता-मर्यादा के सारे प्रतिमान टूट जाते हैं जब बड़े-बड़े शहरों में, जहाँ कहा जाता है कि पढ़े-लिखे सभ्य लोग रहते हैं और जेसिका लाल हत्याकांड, आरूषि हत्याकांड, प्रियदर्शिनी मट्टू कांड, नैना साहनी हत्याकांड, मधुमिता हत्याकांड, निर्भया कांड जैसी घिनौनी मानसिकता वाली घटनाएं होती हैं। सामाजिक यंत्रणा, दु:ख, शोषण, उत्पीड़न से घिरी स्त्रियां इसी अवमूल्यन का शिकार हैं। यदि स्वतंत्रता और खुलेपन की कीमत इस तरह से महिलाओं को चुकानी पड़ेगी तो यह प्रत्येक दृष्टि से समाज के गिरे हुए स्तर तथा अल्पविकसित मानसिकता को दर्शाता है। 'द हिन्दू' में छपी एक खबर के अनुसार भगवान कृष्ण की पावन भूमि वृन्दावन में संचालित सरकारी आश्रय गृहों में अनाथ विधवाओं के मरने के बाद उनके शरीर के टुकड़े करके स्वीपरों द्वारा जूट की थैलियों में भरकर यूँ ही फेंक दिया जाना जैसी घटनाएं महिलाओं के प्रति गैर सम्मानजनक नज़रिया दर्शाती है। साथ-ही-साथ मानवीयता के अवमूल्यन एवं संवेदनशीलता के मरते जाने की बात चरितार्थ कर रही हैं। आज समाज को मानसिक रूप से समृद्ध होने की आवश्यकता है। इसमें किसी वर्ग विशेष की बात नहीं की जा सकती क्योंकि अपराधी हर वर्ग में है। अनपढ़ से लेकर पढ़े- लिखे धनाढ्य परिवारों में भी घटनाएं हो रही हैं। भ्रूण हत्या जैसे अपराध का जन्म तो मध्यम वर्ग एवं उच्च मध्यम वर्ग के ही परिवारों की पृष्ठभूमि में ही हुआ है। 

           जहाँ तक सामाजिक मूल्योत्थान की बात है शिक्षक, साहित्यकार, शिक्षण-संस्थाएं अपने पाठ्यक्रमों एवं शिक्षण के माध्यम से, साहित्यकार नाट्यसंग्रह, काव्य संग्रह, स्क्रिप्ट, कथानक, उपन्यास, कहानी संग्रह, विभिन्न शैलियों में उनका मंचन के माध्यम से एवं प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, फिल्मी दुनिया आदि के माध्यम से समाज के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाया जा सकता है। समाज हमेशा परिवर्तनशील रहा है, समाज बदल रहा है किन्तु परिवर्तन सकारात्मक आना चाहिए न कि नकारात्मक, जैसा कि देखने को मिल रहा है। कानून का निर्माण आसान है लेकिन कानून भी बहुत सार्थक सिद्ध नहीं होंगे, जब तक समाज का महिलाओं के प्रति सम्मानपूर्ण नजरिया नहीं होगा। उसके लिये उन्हीं सामाजिक मूल्यों की ओर लौटना होगा, जहाँ एक घर की बेटी पूरे गाँव की बेटी होती थी, एक घर की बहू पूरे गाँव की बहू होती थी। सामाजिक सुरक्षा का भाव जो हमारी संस्कृति में विद्यमान था। उसी तरह के समाज का निर्माण करने की जिम्मेदारी हम सब की है। इन सबका एक भेदक तत्व है- पहल। एक ऐसी पहल जो संघर्ष के रूप में हो, जो समाज को धीरे-धीरे परिवर्तित करे। सम्मान, स्वतंत्रता व अधिकारों पर हर मानव का बराबर का अधिकार है। इसे स्त्री-पुरुष के खेमे में नहीं बाँटा जा सकता। 

                महात्मा गांधी का कहना था कि स्त्रियों के प्रति समाज में बदलाव के नज़रिये द्वारा ही सामाजिक मूल्यों को पुनर्संरचना की जा सकती है। उनके शब्दों में महिलाओं को कमजोर कहना, उनका अपमान करना है। वे महिलाओं की स्वतंत्रता की वकालत करते थे; ताउम्र उनकी स्थिति सुधारने की बात करते रहे। अत: गांधीजी के सपने को साकार करने के लिए आज सार्थक प्रयास करने होंगे, जिससे न केवल हम आज के समाज को गर्त में जाने से बचाएंगे वरन् अपने देश को भी।

 

प्रतिभा चौहान

बिहार न्यायिक सेवा 

 

 

 

 

 

 

 

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